नवीन कुमार
लोकसभा के चुनाव तीन महीने के बाद होने वाले हैं. उससे पहले रायगड के कर्जत में आयोजित दो दिवसीय चिंतन शिविर में एनसीपी के अजित पवार गुट ने अपना चुनावी शंख फूंक दिया है. शरद पवार के एनसीपी से अलग होने के बाद अजित गुट का यह पहला चिंतन शिविर है. इस शिविर की खासियत के बारे में बात की जाए तो इसमें चिंतन कम और गड़े मुर्दे निकालने का काम ज्यादा दिखा. दूसरी बात यह कि अजित गुट का चेहरा सत्ता सुख भोगने वाले के रूप में भी उजागर हुआ है. शरद पूरे शिविर में काली घटा की तरह छाए रहे. चाहे उनके भतीजे अजित हों या प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल और सुनील तटकरे जैसे वरिष्ठ नेता जो शरद की छाया में ही राजनीतिक रूप से पले-बढ़े हैं अपने पुराने नेता शरद पर ही कीचड़ उछालते रहे. लेकिन यह बात भी खुलकर सामने आई कि आज जो अजित गुट भाजपा के साथ है यह गुट लगभग दो दशक से भाजपा की गोद में बैठने के लिए बेचैन था. इस गुट ने यह दावा किया कि जब भी भाजपा के साथ गठबंधन की बात आगे बढ़ी तो शरद ने मौके पर उस पर ब्रेक लगा दिया. आखिर में अजित गुट शरद को बूढ़ा मानते हुए सारी सीमाएं लांघकर भाजपानीत सरकार में शामिल हो गया. महाराष्ट्र में भाजपा, शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट और एनसीपी के अजित गुट मिलकर सरकार चला रहे हैं. मुख्यमंत्री की कुर्सी शिंदे संभाल रहे हैं और शिंदे से यह कुर्सी छीनने के लिए अजित गुट दबाव बनाए हुए है. शिविर में अजित ने खुद ही कहा है कि हमें पहले लोकसभा के चुनाव में जीतना है, उसके बाद ही मुझे मुख्यमंत्री के रूप में देखने का सपना साकार हो सकता है. इससे स्पष्ट है कि लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र से 48 में से 42 सीटों पर जीत मिलती है तो अजित गुट को उसका फायदा महाराष्ट्र विधानसभा में मिल सकता है. अजित गुट के लिए यह सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा है. इस तरह की अग्निपरीक्षा से शिंदे गुट को भी गुजरना है. इसमें इन दोनों गुट को यह भी साबित करना पड़ेगा कि उनमें से कौन अव्वल है. इस शिविर में पार्टी के मुखिया के तौर पर अजित ने अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को जीत के लिए चुनावी जमीन मजबूत करने को कहा है.
शरद कह चुके हैं कि वह बूढ़े नहीं हैं. वह बरसात में भींगते हुए भी जनसभा को सम्बोधित करके राजनीतिक चमत्कार दिखाने की क्षमता रखते हैं. शरद के प्रभाव से अजित गुट वाकिफ है. इसलिए उनके भतीजे अजित अपने पवार परिवार की दीवार को लांघ नहीं पा रहे हैं. इस शिविर में अजित ने दोहराया है कि राजनीतिक लड़ाई से अलग है पवार परिवार के बीच रिश्ता. इस रिश्ते की गहराई लोगों को दिखती है जब पारिवारिक कार्यक्रम में शरद और अजित मिलते हैं और साथ में खाना भी खाते हैं. इससे भाजपा भी अंदर से घबराई हुई है. उसे समझ में नहीं आ रहा है कि राजनीतिक खेल में पवार परिवार क्या तमाशा दिखाएगा. इसलिए भाजपा में अजित की स्थिति वही है जो कांग्रेस में शरद की है यानि कि कांग्रेस में शरद विश्वासपात्र नहीं हैं. लेकिन राजनीतिक स्थिति ऐसी है कि कांग्रेस शरद के बिना चुनावी राजनीति नहीं कर सकती है. यही वजह है कि कांग्रेस के साथ शरद हैं. अब अजित को भी भाजपा का विश्वासपात्र बनना है. भाजपा की कसौटी पर अजित खरे उतरते हैं तो दोनों के बीच राजनीतिक दोस्ती कायम रह सकती है. लेकिन अजित महत्वाकांक्षी हैं और इसे पूरा करने के लिए ही एनसीपी को बांट दिया है. अपने गुट के साथ वह शरद को दागदार साबित करने में जुटे हुए हैं. अजित गुट का आरोप है कि भाजपा के साथ जाने के लिए शरद खुद ही आगे बढ़ाते रहे हैं. लेकिन मौके पर वह रस्सी पीछे खींच लेते थे. इसका सबसे ज्यादा नुकसान अजित को हुआ है. वह मुख्यमंत्री नहीं बन पाए हैं. इसलिए शिविर में सबसे महत्वपूर्ण काम गड़े मुर्दे उखाड़ने का ही रहा है. ये गड़े हुए मुर्दे कितने असली हैं, कितने नकली हैं इस बारे में चाचा-भतीजे ही जानते हैं. लेकिन गड़े मुर्दे उखाड़ने के चक्कर में तत्कालीन भाजपा और शिवसेना नेताओँ को भी बदनाम करने की कोशिश की गई जिसे आज के भाजपा गुट के नेता पसंद नहीं करते थे. अजित गुट के वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल ने गड़े मुर्दे को उखाड़ते हुए यह रहस्य उजागर किया कि 2004 में भाजपा और एनसीपी गठबंधन हो जाता. लेकिन दिवंगत प्रमोद महाजन के कारण यह संभव नहीं हो पाया. उन दिनों महाजन अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के करीबी थे. इधर महाराष्ट्र में शिवसेना से रिश्ते मजबूत करने में महाजन के साथ गोपीनाथ मुंडे ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे. लेकिन पटेल का दावा है कि महाजन की राजनीतिक अहमियत कम होने लगी थी जिससे उन्होंने भाजपा-एनसीपी गठबंधन की बात बाल ठाकरे को बता दी और ठाकरे के आपत्तिजनक बयान के बाद यह गठबंधन नहीं हो पाया. पटेल ने इस रहस्य को जाहिर करते हुए एक तीर से कई निशाने साधे हैं. महाजन के साथ वाजपेयी, आडवाणी और ठाकरे को एनसीपी के लिए खलनायक बना दिया. अजित गुट के सुनील तटकरे ने भी अपनी बात से चौंकाने की कोशिश की. उनका दावा है कि 2014 में भाजपा सरकार को समर्थन देने का निर्णय लिया गया था. 2019 में तो अजित को देवेंद्र फडणवीस के साथ शपथ भी दिला दी गई थी. लेकिन ऐन मौके पर शरद ने हाथ खींच लिया और अजित विलेन बन गए. ऐसे कई और मौके थे जब अजित को भाजपा से तालमेल के लिए आगे किया गया पर शरद ने उन्हें बदनाम कर दिया. अजित खुद भी अपने चाचा को घेरते हुए आरोप लगाया है कि भाजपा सरकार में शामिल होने का फैसला शरद का ही था. इस फैसले से उनकी बेटी सुप्रिया सुले भी वाकिफ थीं. लेकिन सुले ने अजित के इस आरोप को गलत बताया है. अजित ने तो शरद के इस्तीफे को भी नाटक बताया है. अजित गुट का यह दावा थोड़ा खोखला भी दिखता है कि पवार भी भाजपा से गठबंधन चाहते थे. अगर दो दशकों से यह प्रयास चल रहा है तो यह गठबंधन क्यों नहीं हो पाया, यह बड़ा सवाल है. क्या शरद की अपनी शर्तें पूरी नहीं हो पा रही थी. एनसीपी में बिखराव के बाद भी पवार बार-बार कह रहे हैं कि उनकी पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन नहीं होगा. पवार के इस तरह से नकारने के पीछे भी कोई तो बड़ा कारण होगा जिस वजह से वह भाजपा के साथ गठबंधन को तैयार नहीं हैं. जबकि भाजपा ने खुलकर कहा है कि शरद भाजपा के साथ आते हैं तो देश की राजनीति में बदलाव आ सकता है यानि कि विपक्ष और क्षेत्रीय पार्टियां बुरी तरह से कमजोर हो सकती है.
इस बार चुनावी राजनीति में पवार परिवार अलग ही रंग-रूप में दिखाई देगा. क्योंकि, अजित ने लोकसभा के बारामती, सतारा, शिरूर और रायगड क्षेत्रों में अपने गुट के उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है. 2019 में इन चारों सीटों पर एनसीपी की जीत हुई थी. इसमें से तीन सांसद शरद गुट में तो एक सांसद (रायगड से सुनील तटकरे) अजित गुट में हैं. बारामती से शरद की बेटी सुले सांसद हैं. इस सीट को एनसीपी से छीनने की कोशिश भाजपा पहले से कर रही है जिसमें उसे सफलता नहीं मिली है. अब शायद अजित के सहयोग से भाजपा को अपना सपना पूरा करने का मौका मिल सकता है. बारामती में सुले की हार होती है तो इसे शरद गुट के एनसीपी के खात्मे के रूप में देखा जा सकता है. लेकिन इस बार महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति में पहली बार पवार के खिलाफ पवार का दृश्य रोमांचक हो सकता है. चर्चा तो है कि बारामती से अजित अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार या पुत्र पार्थ पवार को उम्मीदवार बना सकते हैं. सुले इस चुनावी जंग के लिए तैयार हैं. उनका कहना है कि फैसला बारामती की जनता करेगी. लेकिन पवार परिवार के बीच इस संभावित चुनावी जंग को लेकर शरद के पोते और अजित के भतीजे विधायक रोहित पवार मानते हैं कि बारामती में भाजपा पवार परिवार को आपस में लड़ाना चाहती है. हालांकि, बारामती में सुले के काम से आम जनता खुश है. इसलिए अजित के लिए न सिर्फ बारामती बल्कि सतारा, शिरूर और रायगड में भी अपने उम्मीदवार को जिताना आसान नहीं होगा. इन क्षेत्रों में शरद का अपना प्रभाव है. सतारा में उदयनराजे भोसले एनसीपी के टिकट पर चुनाव जीतकर भाजपा में चले गए तो उपचुनाव में शरद ने भोसले को हराकर अपने उम्मीदवार श्रीनिवास पाटील को जिताया था. रायगड में उद्धव ठाकरे गुट की शिवसेना के अनंत गीते का प्रभाव है. ठाकरे गुट की शिवसेना के सहयोग से अजित गुट के सुनील तटकरे को शिकस्त मिल सकती है. शिरूर में शरद गुट के एनसीपी के सांसद और टीवी एक्टर अमोल कोल्हे को हराना मुश्किल है. ऐसे में अजित गुट के लिए शरद गुट को किसी भी चुनाव में हराना आसान नहीं है. अजित जब शरद के साथ थे तब अजित अपने बेटे पार्थ को पुणे की मावल लोकसभा सीट से चुनाव नहीं जिता पाए थे. पुणे जिले में अजित का दबदबा है. लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी शरद ने पार्थ को चुनाव लड़ाने से मना किया था. शरद के गणित को न समझने के कारण पार्थ चुनाव हार गए थे. पवार परिवार के पहले सदस्य हैं पार्थ जिन्हें चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था. शरद राजनीति में अपनी दूरदृष्टि रखते हैं. अब अजित किस तरह से एनसीपी की जीती हुई लोकसभा सीटों के अलावा अन्य सीटों पर अपने उम्मीदवारों को जीत दिला सकते हैं, यह सवाल बना हुआ है. अब भतीजे अजित की हर चाल से वाकिफ शरद चुनावी मैदान में अपने राजनीतिक चक्र का खेल किस तरह से खेलते हैं यह भी देखना दिलचस्प होगा.