०प्रतिदिन विचार -राकेश दुबे
किसी मित्र ने कल चिंता व्यक्त करते हुए कहा शायद आजकल बचपन आता ही नहीं है, बच्चों की मासूमियत कब गंभीरता या समझदारी में बदल जाती है, पता ही नहीं लगता। समाज में तेज़ी से घूमते इस परिदृश्य के केंद्र में वह पीढ़ी है जिस पीढ़ी के बच्चों ने अपने बचपन को जिया ही नहीं हैं । उनकी मासूमियत बहुत जल्दी परिपक्वता में बदल रही है , तकनीक और मीडिया उम्र और समय से पहले ही उनका बचपन छीन रहा है। एक प्रमुख कारण यह हो सकता है कि आज की पीढ़ी अपने जीवन में उत्पन्न चुनौतियों को या तो बहुत हल्के में लेती है या फिर उसके आगे हथियार डाल देती और और नतीजा हिंसा या अपराध के मार्ग का चयन ।
यह भी सत्य है कि पहले का बचपन और आज का बचपन बिल्कुल भिन्न है या कहें कि एकदम उलट है। आज का बचपन तनावग्रस्त, नियमित पढ़ाई के साथ-साथ विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और शौक की कक्षाओं में व्यस्त रहता और न दिखाई देने वाली एक दौड़ में दौड़ता नजर आता है। इन सबके चलते बच्चे समय से पहले ही परिपक्व हो रहे हैं।
आज सूचना क्रांति और उपभोक्ता बाजार ने उनके अपरिपक्व मस्तिष्क पर सूचनाओं का हमला बोल दिया है, जिससे उन्हें अपनी मानसिक क्षमता को अत्यधिक विस्तार देने की आवश्यकता होती है ताकि वे उन समस्त सूचनाओं को अपने ‘ज्ञान भंडार’ में रख सकें और स्वयं को जीवन की दौड़ में सफल साबित कर सकें। इस सफलता की संभावना ने बच्चों को उपभोक्ता में तब्दील कर दिया है, उनकी स्वाभाविकता भी समाप्त हो गई है।
मानव शरीर अगर स्वाभाविक रूप से विकसित हो तो स्वस्थ रहता है, पर अगर चिकित्सीय प्रक्रिया द्वारा मानव शरीर के साथ छेड़छाड़ जैसे हारमोन बदलवाना, प्लास्टिक सर्जरी करवाना आदि से तो आगे चलकर विभिन्न प्रकार की अज्ञात बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। आज यह भी एक सत्य है कि पहले जो बीमारियां वृद्धावस्था में होती थीं, आज किशोर और युवावस्था में या उससे भी पहले देखी जा सकती हैं, जैसे रक्तचाप, मधुमेह, अस्थमा, दिल का दौरा आदि। चिकित्सीय शोध के अनुसार अस्सी से नब्बे प्रतिशत बीमारियां तनाव के कारण होती हैं। तंत्रिका वैज्ञानिक बीएस ग्रीनफील्ड के अनुसार मस्तिष्क के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कारक हैं- प्रत्यक्ष अनुभव, वयस्क पीढ़ी के साथ अंत:क्रिया, खेलने के अवसर और सृजनशील होना, जिसे आधुनिक जीवन की तीव्र गति नष्ट कर रही है।
कहने को प्रौद्योगिकी ने विश्व को व्यापक पैमाने पर खोल दिया है, पर प्रत्यक्ष अनुभवों का कोई विकल्प नहीं होता, जिससे आज के बच्चे तेजी से वंचित होते जा रहे हैं। आजकल प्रौद्योगिकी के कारण बाहरी गतिविधियों को घर के भीतर की गतिविधियों ने विस्थापित कर दिया है, जिसका प्रभाव न केवल बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ा है, बल्कि बच्चों में निराशा और कुंठा भी बढ़ रही है। बच्चों में ‘सामाजिकता’ समाप्त हो रही है, उनमें व्यक्तिवादिता बढ़ रही है। वे चुनौतियों का सामना करने के बजाय पलायनवादी बन रहे हैं, जीवन जीने के बजाय उसे समाप्त कर लेना उन्हें ज्यादा सरल लगने लगा है। बच्चों में आए इन बदलावों के लिए पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का असमान और भेदभावपूर्ण होना, शिक्षण प्रणाली, बाजार आधारित अस्मिता पर व्यय करना, गला-काट प्रतियोगिता के लिए प्रयास करना, उच्च पद प्राप्ति की इच्छा, अधिकतम स्तर की सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा, अनौपचारिक प्रणाली से अलगाव और भावनात्मकता की समाप्ति, करिअर के लिए बच्चों पर दबाव, ग्रामीण-नगरीय विभाजन के आधार पर योग्यता की पहचान करना, अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति और अहंवाद का मनोविज्ञान, अपनी बौद्धिकता पर संदेह करना आदि कारण हैं।
प्रतियोगिताओं के सभी स्वरूप बच्चों में विखंडित व्यक्तित्व और आत्मविश्वास की कमी पैदा कर रहे हैं, इसलिए आत्महत्या निराशा के बजाय सामाजिक दबाव का परिणाम अधिक है। इन आत्महत्याओं को आत्महत्या नहीं, बल्कि व्यवस्थाजनित आत्महत्याएं कहा जा सकता है, जिसके लिए औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की संस्थाएं जिम्मेदार हैं। शैक्षणिक संस्थाओं ने सफलता के मूल्य को असीमित बना दिया है, यानी अब सफलता की कोई सीमा नहीं है। सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना ही सफलता का मापक है। इसके बाद प्रतियोगी परीक्षाओं में आपकी रैंक श्रेष्ठ ही आनी चाहिए, ऊंचे वेतनमान वाली नौकरी मिलनी चाहिए। इस प्रवृत्ति ने छात्र को तबाही के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया है।
बाजार ने प्रत्येक परिवार को, चाहे वह निम्न हो या उच्च, बाध्य किया है कि वह अपने बच्चों को अगर सफल बनाना चाहता है, तो उन्हें अमुक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश दिलाना होगा। पर यह भी तथ्य है कि माता-पिता की जरूरत से ज्यादा उम्मीदें और दिन-प्रतिदिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने बच्चों को इतना व्यस्त कर दिया है कि वे तनाव में रहने लगे हैं। स्कूल हो या ट्यूशन, कंप्यूटर की कक्षा हो या नृत्य की या फिर टीवी, सभी के लिए बच्चों की समय सारिणी निर्धारित है। मगर यह बच्चों के लिए सुविधा के बजाय समस्या साबित हो रहा है, जो तनाव का कारण है। अब बच्चों में तनाव शारीरिक या मानसिक कारणों के बजाय सामाजिक कारणों से अधिक होता है।
शोध के मुताबिक, अगर बच्चा इस तनाव का शिकार हो जाता है कि मेरा चयन नहीं हुआ, तो माता-पिता कर्जा कैसे उतारेंगे।मैं उनकी उम्मीदों को पूरा करने में सक्षम नहीं हूं, मैं जिंदगी में कुछ नहीं कर सकता और यही सोच कर वह आत्महत्या जैसे अमानवीय कदम उठाने का दुस्साहस कर बैठता है। जिस उम्र में हम उन्हें कोचिंग संस्थानों के अनुशासित पिंजरे में कैद कर देते हैं, वह उम्र तो दोस्ती करने, सामाजिक मूल्यों को सीखने, शारीरिक और मानसिक विकास करने तथा अपनी रचनात्मकता को विकसित करने, दादी-नानी की कहानियां सुनकर उन चरित्रों में खुद को ढूंढ़ने की, बड़े होकर देश के लिए कुछ कर गुजरने की होती है।
यह एक तथ्य है कि सृजनशीलता के लिए कल्पनाशील होना भी जरूरी है और हमने तो बचपन में ही बच्चों की कल्पनाशीलता को समाप्त कर दिया है। संभवत: यही कारण है कि बच्चों में सृजनशीलता की प्रवृत्ति समाप्त हो रही है। और जरा सोचिए, हम उस उम्र में बच्चों को एक कृत्रिम वातावरण में कैद कर देते हैं, उसे परिवार के सामाजिक दायरे से अलग कर देते हैं, उसे किसी भी समस्या के समाधान के लिए प्रोद्योगिकी या गूगल के पास जाने के लिए बाध्य करते हैं, उसे कहते हैं कि अभी करिअर पर ध्यान दो, खेलने और दोस्ती करने के लिए तो सारी जिंदगी पड़ी है। सभी जानते हैं कि यह उम्र एक बार निकल गई तो दोबारा नहीं मिलेगी ऐसे में बचपन पीछे रह जाता है और बच्चे युवा बन जाते हैं।