कितना विचित्र है कि देश में 70 करोड़ लोगों से ज्यादा पैसा सिर्फ 21 अरबपतियों के पास है। इसके विपरीत जब कर चुकाने की पारी आती है तो आम आदमी पर ही कर का अधिक बोझ क्यों पड़ता है? यह एक बड़ा सवाल है ।आधे से अधिक जीएसटी और लगभग तीन-चौथाई आयकर छोटे दुकानदार, आम आदमी और नौकरीपेशा लोग ही चुकाते नजर आते हैं? आज वंचितों का हितचिंतन होने लगा है। होना ही चाहिए उस देश में जहां कुल आबादी का एक प्रतिशत देश की सम्पदा के 40 प्रतिशत से अधिक पर कब्जा बनाए हुए है। देश में गरीब और अमीर के बीच अंतर तेजी से बढ़ रहा है। साल 2020 में भारत में अरबपतियों की संख्या 102 थी जो 2022 में बढ़कर 166 हो गई है । पिछले वर्ष जीएसटी का लगभग 64 प्रतिशत हिस्सा देश की 50 प्रतिशत आबादी ने चुकाया और सबसे अमीर दस प्रतिशत लोगों ने जीएसटी का सिर्फ 3 प्रतिशत हिस्सा चुकाया।
देश के विकास पथ पर अग्रसर होने का सामंजस्य सरकार महंगाई नियंत्रण से बिठा रही हैं। अगर धनी वर्ग अपने टैक्स का उचित हिस्सा नहीं चुकाते हैं। धनकुबेरों की सम्पदा एक साल में कम से कम 46 प्रतिशत बढ़ जाती है और भूख से त्रस्त भारतीयों की संख्या 4 साल में बढ़कर 19 करोड़ से 35 करोड़ हो जाती है। वहीं देश की महिला कर्मचारियों को पुरुषों के मुकाबले 1 रुपये की तुलना में 63 पैसे मिलते हैं तो ऐसे में देश में समतावाद का माहौल हमारे बजट कब लाएंगे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वंचितों को वरीयता देने की घोषणा की। विडंबना है कि मध्य वर्ग को खुद ही इसका पता नहीं कि उसकी हालत में क्या सुधार हुआ?केन्द्रीय खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री कहते हैं कि एफपीओ योजनाओं के चलते किसानों की आय दोगुनी हो गई है। ऐसे आंकड़े शाब्दिक रूप से तो भारत के लिए एक उजले वर्तमान और एक चमकते भविष्य का संकेत दे देते हैं लेकिन जहां दस प्रतिशत धनियों के पास ही देश की 90 प्रतिशत सम्पदा हो, उसके नागरिकों को इन आंकड़ों से कितना बहलाया जा सकता है।
आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार , हमारी विकास दर 6.5 प्रतिशत है लेकिन वह निरंतर धीमी हो रही है। देखने वाली बात है कि यह विकास और सम्पदा की वृद्धि किन लोगों के पास इकट्ठी हो रही है। चुनौतियों से निपटने के लिए विश्वस्तर पर और भारत के कृषि और उद्योग दोनों क्षेत्रों में समन्वय समितियां बनाने पर बल तो दिया जा रहा है, आज भी देश में दो एकड़ तक खेती करने वाले छोटे किसानों का बाहुल्य है और वे कर्ज बोझ से दबे हैं। वंचितों को वरीयता की बात ?लेकिन क्या उसके लिए अनुकम्पाएं और रियायतें बढ़ाने के अतिरिक्त कोई और रोडमैप नहीं? बेकारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से इस देश का जितना आम आदमी तंग हुआ है, उतना उसका स्पर्श शायद ऊंचे प्रासादों तक नहीं जाता। बेकारी दूर करने के लिए मनरेगा शुरू किया गया था। आज मांग हो रही है कि कम से कम उसमें वंचित परिवार के एक सदस्य को सौ दिन का रोजगार तो मिले। बजट में भी मनरेगा के लिए आवंटित धनराशि कम हो रही है। रोजगार देने की गारंटी की कोई योजना सामने नहीं आती।
आंकड़ों के मुताबिक, देश में आत्महत्या करने वालों की संख्या बढ़ी है और इनमें छोटे किसान, बेकार मजदूर और भटके हुए नौजवानों की संख्या बढ़ रही है। सरकार तो कहती है कि हमने किसानों को कृषि क्रांति की सौगात देने का प्रण कर लिया है। फसल विविधीकरण, मोटे अनाज का उत्पादन व खेती का मशीनीकरण तेजी से किया जाएगा। मध्य वर्ग के लिए भी कहा जा रहा है कि हम नयी शिक्षा नीति ले आए। शिक्षा संस्थानों की संख्या भी बढ़ गई। महिलाओं के दाखिले में वृद्धि हुई है लेकिन मध्यवर्ग क्या अनुकम्पा के बल पर ही जिएगा? क्या इस वर्ष जी 20 के आयोजित होने वाले लगभग 200 सम्मेलनों में तीसरी दुनिया और वंचितों की समस्या के हल की तलाश की जाएगी?
कहने को देश में सहकारिता की भावना को पुन: जीवित किया जाएगा। ग्रामीण और कुटीर उद्योगों का विकास किया जाएगा। दस्तकारी से बनी वस्तुओं के निर्यात को बढ़ाया जाएगा। कहीं ऐसा न हो कि ग्रामीण क्षेत्रों और ग्रामीण दस्तकारी के विकास के नाम पर, निर्यात बढ़ाने के नाम पर धनकुबेरों को इन क्षेत्रों में आने की इजाजत दे दी जाए व स्टार्टअप उद्योगों में भी धनी-मानी नजर आयें।