देश में बहस जारी है,मुद्दा पाठ्यक्रम में घटाना -जोड़ना है।कमोबेशमुगलों के इतिहास से जुड़े ‘द मुगल कोर्ट’ और ‘किंग्स एंड क्रॉनिकल्स’ नामक दो पाठ हटाये गये हैं। वहीं राजनीति शास्त्र की किताब से आजादी के बाद एक दल के प्रभुत्व वाले पाठ को हटाया गया है। ग्यारहवीं की किताब से ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंड’ और ‘कान्फ्रन्टेशन ऑफ कल्चर्स’ पाठ हटाये गये हैं। वहीं ‘जन आंदोलन का उदय’ और ‘एक दल के प्रभुत्व का दौर’ पाठ भी हटाया गया है।भारत में यह परिपाटी बनती जा रही है कि सत्ताधीशों द्वारा अपनी सुविधा के हिसाब से इतिहास की व्याख्या की जाए । वैसे देश-दुनिया में हर राजनीतिक दल द्वारा कोशिश की जाती रही है कि इतिहास के पन्नों में उसका राजनीतिक विमर्श प्रभावी हो। जबकि यह भी एक हकीकत है कि ऐसी कोशिशें तात्कालिक लाभ भले ही दे जाएं, लेकिन ऐसे प्रयास न दीर्घकालिक होते हैं और न उन्हें सर्व-स्वीकार्यता ही मिलती है। क्या यह सम्भव नहीं है कि देश का सर्व सम्मत इतिहास पाठ्यक्रम का अंग बने?
इतिहास बदलने की इस बार हुई कवायदों को राजाश्रय की वजह से नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग यानी एनसीईआरटी द्वारा पाठ्यक्रम में बदलाव की कोशिशों को इसी नजरिये से देखा जा रहा है। खासकर इतिहास की किताबों से मुगल साम्राज्य से जुड़ा चैप्टर हटाया गया है। वहीं हिंदी की किताब से कुछ कविताएं व पैराग्राफ हटाये गये हैं। हालांकि, एनसीईआरटी का कहना है कि तार्किक प्रक्रिया के तहत पाठ्यक्रम में बदलाव किया गया है। इसके लिये एक साल पहले विशेषज्ञ समिति बनायी गई थी, उसकी सलाह पर कुछ पाठ हटाये गये हैं। छात्रों का बोझ कम करने का प्रयास किया है तो कहीं कुछ पाठों में दोहराव को हटाया गया है। केवल इतिहास ही नहीं, हर विषय का पाठ्यक्रम कम किया गया है। जिसकी पहल कोरोना काल में पढ़ाई न होने पर छात्रों का बोझ कम करने के रूप में हुई थी ।
हिंदी से जुड़ी कुछ साहित्यिक रचनाओं को भी हटाया गया है। बारहवीं, ग्यारहवीं व दसवीं के पाठ्यक्रम में बदलाव के साथ ही यूपी बोर्ड के पाठ्यक्रमों में भी बदलाव किया गया है। एनसीईआरटी की दलील है कि यह युक्तिसंगत सिलेबस बिना भेदभाव के तैयार किया गया है और आगामी शैक्षिक सत्र में लागू होगा। इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस शुरू हो गई है । राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी,लेकिन शिक्षाविदों, इतिहासकारों तथा बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया भी सामने आ रही है। सवाल उठाया जा रहा है कि एक कालखंड को पाठ्यक्रम से हटाने से इतिहास में एक शून्यकाल नजर आयेगा। उस कालखंड के बारे में नई पीढ़ी को क्या बताया जायेगा? कहा जा रहा है मुगल हमलावर थे। सत्ता के संघर्ष में टकराव स्वाभाविक है, लेकिन मुगल भारत के रीति-रिवाजों में रमकर यहीं के होकर रह गये। वे अंग्रेजों की तरह सब कुछ लेकर नहीं गये। कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि भले ही मुगलकाल हिंसा, दमन व लूट का दौर रहा हो, लेकिन उस कालखंड की विसंगतियों से सबक जरूर लेना चाहिए। संप्रदाय विशेष की दृष्टि से इतिहास को नहीं देखा जाना चाहिए। सरकारी पक्ष के विचारकों की दलील है कि हम इतिहास को नहीं बदल रहे हैं वरन मुगलकाल के महिमामंडन से परहेज किया गया है। छात्रों को तर्कसंगत व न्यायसंगत ज्ञान ही दिया जाना चाहिए। उनकी दलील है कि कथित प्रगतिशील व वाम दृष्टि से लिखा गया इतिहास वास्तविकता को उजागर नहीं करता। वे इतिहास लेखन में भारतीय दृष्टिकोण के पक्षधर हैं। सभी मुगलकालीन स्थापत्य कलाओं का सम्मान करते हैं। वैसे किसी भी तरह के बदलाव में समाज के हर वर्ग के अहसासों का ध्यान रखना जरूरी है। इतिहास में भारतीयता की दृष्टि होनी अनिवार्य है। कोई भी परिवर्तन वर्ग विशेष की सुविधा के अनुरूप नहीं होना चाहिए।
इतिहास बदलने की इस बार हुई कवायदों को राजाश्रय की वजह से नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग यानी एनसीईआरटी द्वारा पाठ्यक्रम में बदलाव की कोशिशों को इसी नजरिये से देखा जा रहा है। खासकर इतिहास की किताबों से मुगल साम्राज्य से जुड़ा चैप्टर हटाया गया है। वहीं हिंदी की किताब से कुछ कविताएं व पैराग्राफ हटाये गये हैं। हालांकि, एनसीईआरटी का कहना है कि तार्किक प्रक्रिया के तहत पाठ्यक्रम में बदलाव किया गया है। इसके लिये एक साल पहले विशेषज्ञ समिति बनायी गई थी, उसकी सलाह पर कुछ पाठ हटाये गये हैं। छात्रों का बोझ कम करने का प्रयास किया है तो कहीं कुछ पाठों में दोहराव को हटाया गया है। केवल इतिहास ही नहीं, हर विषय का पाठ्यक्रम कम किया गया है। जिसकी पहल कोरोना काल में पढ़ाई न होने पर छात्रों का बोझ कम करने के रूप में हुई थी ।
हिंदी से जुड़ी कुछ साहित्यिक रचनाओं को भी हटाया गया है। बारहवीं, ग्यारहवीं व दसवीं के पाठ्यक्रम में बदलाव के साथ ही यूपी बोर्ड के पाठ्यक्रमों में भी बदलाव किया गया है। एनसीईआरटी की दलील है कि यह युक्तिसंगत सिलेबस बिना भेदभाव के तैयार किया गया है और आगामी शैक्षिक सत्र में लागू होगा। इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस शुरू हो गई है । राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी,लेकिन शिक्षाविदों, इतिहासकारों तथा बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया भी सामने आ रही है। सवाल उठाया जा रहा है कि एक कालखंड को पाठ्यक्रम से हटाने से इतिहास में एक शून्यकाल नजर आयेगा। उस कालखंड के बारे में नई पीढ़ी को क्या बताया जायेगा? कहा जा रहा है मुगल हमलावर थे। सत्ता के संघर्ष में टकराव स्वाभाविक है, लेकिन मुगल भारत के रीति-रिवाजों में रमकर यहीं के होकर रह गये। वे अंग्रेजों की तरह सब कुछ लेकर नहीं गये। कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि भले ही मुगलकाल हिंसा, दमन व लूट का दौर रहा हो, लेकिन उस कालखंड की विसंगतियों से सबक जरूर लेना चाहिए। संप्रदाय विशेष की दृष्टि से इतिहास को नहीं देखा जाना चाहिए। सरकारी पक्ष के विचारकों की दलील है कि हम इतिहास को नहीं बदल रहे हैं वरन मुगलकाल के महिमामंडन से परहेज किया गया है। छात्रों को तर्कसंगत व न्यायसंगत ज्ञान ही दिया जाना चाहिए। उनकी दलील है कि कथित प्रगतिशील व वाम दृष्टि से लिखा गया इतिहास वास्तविकता को उजागर नहीं करता। वे इतिहास लेखन में भारतीय दृष्टिकोण के पक्षधर हैं। सभी मुगलकालीन स्थापत्य कलाओं का सम्मान करते हैं। वैसे किसी भी तरह के बदलाव में समाज के हर वर्ग के अहसासों का ध्यान रखना जरूरी है। इतिहास में भारतीयता की दृष्टि होनी अनिवार्य है। कोई भी परिवर्तन वर्ग विशेष की सुविधा के अनुरूप नहीं होना चाहिए।