प्रतिदिन विचार -राकेश दुबे
भारत में हमेशा से एक सोच रही है कि वह एक महानतम देश बनने की स्थिति के करीब पहुंच गया है या पहुंच रहा है । देश के मतदाताओं को यह विश्वास दिलाया गया है कि दुनिया में उनका देश एक अग्रणी भूमिका निभाएगा। पिछली सरकारों की तुलना में वर्तमान सरकार ने इसे कई बार दोहराया है।इसके विपरीत वर्तमान परिदृश्य हमारे चिंतित होने का सबब होता जा रहा हैं। यह धारणा नागरिको,राजनीतिज्ञों एवं अधिकारियों तक बनती दिख रही है | निवेश के लिहाज से एक अहम बाजार के रूप में भारत का प्रदर्शन संतोषजनक कहा जा रहा है। वित्त वर्ष 2021-22 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) बढ़कर 85 अरब डॉलर के अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। इसके बावजूद प्रश्न है कि क्या यह आंकड़ा काफी है?
एफडीआई का मौजूदा आंकड़ा नाकाफी है और भारत को इस दिशा में और प्रयास करने की जरूरत है। क्या हम यह सोच कर संतुष्ट हो सकते हैं कि ऐपल जैसी बड़ी कंपनियों के लिए भारत चीन का विकल्प हो सकता है और इससे वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था में बड़ा बदलाव हो सकता है? कई व्यापारिक समूहों का हिस्सा बन चुके चीन जैसे देश व्यापारिक संपर्क के मामले में भारत से बेहतर स्थिति में है।
कहने को एफडीआई के बल पर जो देश अब आर्थिक शक्ति बन गए हैं उनकी तुलना में तो भारत के आंकड़े पर्याप्त नहीं लग रहे हैं। अगर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में देखें तो यह आंकड़ा प्रभावित करने वाला नहीं दिख रहा है। वर्ष 2010 से एफडीआई जीडीपी के 1.5 से 2.5 प्रतिशत के बीच रहा है। इसकी तुलना में 1990 से 2000 के दौरान चीन में एफडीआई उसके जीडीपी का 4 से 6 प्रतिशत के बीच हुआ करता था। एक व्यापारिक शक्ति के रूप में जगह बनाने के लिए किसी भी देश में एफडीआई का अहम योगदान होता है। 2000 के मध्य तक चीन की सरकार का अनुमान था कि देश के व्यापार में आधा से अधिक योगदान उन कंपनियों का था, जो पूरी तरह विदेशी निवेश पर निर्भर थे।
दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में बुनियादी ढांचा भारत की तुलना में अच्छी स्थिति में हैं। पूर्वी अफ्रीका में श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी आधी है, जबकि भारत में यह अनुपात केवल एक चौथाई है। यूरोप सहित कई अन्य देशों में वहां के पूंजीपतियों के समक्ष आने वाले वर्षों में अब कई आकर्षक विकल्प आएंगे। ये विकल्प काफी उत्पादक होंगे और इनमें निवेश से जुड़े जोखिम भी काफी कम होंगे। इन देशों में ये सरकार की नीतियों मे बदलाव, ढांचागत क्षेत्र पर अधिक जोर और हरित ऊर्जा की तरफ तेजी से बढ़ते कदम के परिणाम होंगे।कमजोर पक्ष यह है कि भारत के पास फिलहाल इनकी कोई काट भी नहीं है। हम यह सोचने के आदी रहे हैं कि दुनिया में केवल भारत ही निवेश के लिहाज से सबसे अधिक आकर्षक स्थान है, मगर यह सच्चाई यह नहीं है। हालांकि इन सब के बावजूद भी निजी क्षेत्र की इकाइयां भारतीय बाजार के आकार और भविष्य की संभावनाओं के मद्देनजर जरूर दिलचस्पी दिखाएंगी।
एक और बात बड़ी कंपनियां भविष्य में अपनी संभावनाएं खोना नहीं चाहती हैं तो उन्हें भारत को लेकर अवश्य ही एक रणनीति तैयार रखनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप हम तकनीकी से लेकर सेवा क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों के साथ पक्षपात करते हैं। हम इन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों पर स्थानीय कंपनियों के साथ साझेदारी करने का दबाव डालते हैं, उनकी बौद्धिक संपदा साझा करते हैं, वैश्वित स्तर पर मध्यस्थता में भाग लेने से इनकार करते हैं या गोपनीय तरीके से भेदभाव नियम स्वीकार करते हैं। इन बातों को उचित तो नहीं ठहराया जा सकता है। हम निवेश के एक आकर्षक गंतव्य को लेकर भले ही जरूरत से ज्यादा उत्साहित हो जाएं मगर विदेशी कंपनियों को लेकर अपनाया जा रहा व्यवहार कहीं से उचित नहीं है।
शोध समूह बर्नस्टीन की एक रिपोर्ट के अनुसार कुछ कम्पनियों ने भारतीय कारोबार में अब तक 6.5 अरब डॉलर का निवेश किया है, मगर कंपनी मुनाफा अर्जित नहीं कर पाई है। भारत के मध्यम वर्ग के आकार के बारे में कुछ भी कहना सदैव से मुश्किल रहा है। 10 से 20 वर्ष पहले भारतीय कंपनियों ने मध्यम वर्ग को लेकर जो भी अनुमान लगाए थे उनका 2022 की वास्तविक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं होगा।
भारत को भविष्य के एक मजबूत बाजार के तौर पर स्वयं को प्रस्तुत करने से काम नहीं चलेगा। सरकार से सब्सिडी पाने वाले क्षेत्र जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स एवं मोबाइल हैंडसेट विनिर्माण में वैश्विक कंपनियों की रुचि लगातार बनी रहेगी मगर इतना तो तय है कि कारोबार के समान अवसर और बुनियादी प्रशासनिक सुधारों एवं न्यायिक सुधारों के अभाव में अन्य क्षेत्रों की हालत बेहतर नहीं हो पाएगी। सीमेंट क्षेत्र ऐसा ही एक उदाहरण है। स्विटजरलैंड की कंपनी होल्सिम ने भारत में अपना कारोबार समेट लिया। रक्षा क्षेत्र दूसरा उदाहरण है। विदेशी कंपनियों को लगातार यह कहा जा रहा है कि उन्हें न केवल अपनी आपूर्ति व्यवस्था यहां स्थानांतरित करनी होगी बल्कि अपना बौद्धिक संपदा अधिकार भी साझा करने के लिए तैयार रहना होगा।
आज भारत निवेश के एक आकर्षक केंद्र के रूप में प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है, तब भी क्या इसे दूसरे देशों की सरकारों से तरजीह मिलती रहेगी? दुनिया में चीन के मजबूत विकल्प या एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत स्वयं को एक ऐसे देश में देखता है जिसकी कोई अनदेखी नहीं कर सकता है। जमीनी स्तर पर बिना कोई खास उपलब्धि अर्जित किए बिना हम स्वयं को विभिन्न महकमों में अपने आप को एक अहम साझेदार के रूप में देखते हैं।