ज्ञान सागर प्रकल्प के 1051 ग्रंथों का लोकार्पण
भोपाल। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में ‘स्व’ की स्थापना करने की आवश्यकता है। हम जो भी विषय पढ़ते हैं, वे भारतीय ज्ञान परंपरा और जीवनमूल्यों के अनुरूप नहीं है। इसी कारण आज की पीढ़ी में एक बहुत बड़ा वर्ग दिग्भ्रमित दिखाई देता है। व्यवस्था परिवर्तन का अगला कार्य स्व आधारित तंत्र निर्मित करना है। उस दिशा में हमने कुछ कदम बढ़ाए हैं। पुनरुत्थान विद्यापीठ का ज्ञान सागर प्रकल्प भी ऐसा ही एक प्रयास है।
पुनरुत्थान विद्यापीठ के ज्ञान सागर प्रकल्प के 1051 ग्रंथों के लोकार्पण समारोह में यह विचार राष्ट्र सेविका समिति की प्रमुख कार्यवाहिका सीताक्का ने व्यक्त किए। कार्यक्रम का आयोजन भोपाल के प्रज्ञा दीप संस्थान में हुआ। इस समारोह की अध्यक्षता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मध्य क्षेत्र के संघचालक अशोक सोहनी ने की। उन्होंने कहा कि वेदों की रक्षा के लिए भगवान ने पहला अवतार लिया। यानी ग्रंथों की रक्षा करना दैवीय कार्य है। विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इन संदर्भ ग्रंथों का उपयोग करने की हमारी जिम्मेदारी है। उन्होंने पुस्तक की तुलना भगवान के भोग से करते हुए कहा कि हम अपने ईष्ट को छप्पन भोग लगाते हैं। बाद में भोग को प्रसाद के रूप में लोगों को बांटा जाता है। इसी तरह, जब हम पुस्तक पढ़ते हैं तो उसका ज्ञान तत्व हमारे भीतर जाता है, पुस्तक वहीं रहती है। पुस्तक से प्राप्त विचार एवं ज्ञान को समाज में पहुंचना यह हमारी जिम्मेदारी है।
सहज ढंग से लिखे जाएं ग्रंथ
क्षेत्र संघचालक अशोक सोहनी ने कहा कि लोगों को सहज समझ में आए इस प्रकार से ग्रंथों की रचना की जाती है तो वे प्रभावी होते हैं। ग्रंथों को समझना और उनके आधार पर जीवन मूल्यों का निर्माण करना, उसके बाद उन्हें आत्मसात करना, यह ग्रंथों की सार्थकता है। उन्होंने कहा कि हमारा दर्शन कृति रूप में आना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि संघ में कार्य करने वाले तो जानते हैं कि संघ क्या है और क्या करता है। लेकिन आम लोगों को इसकी जानकारी कैसे हो, इसके लिए संघ का विचार ‘कृतिरूप संघदर्शन’ के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस ग्रंथ के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में एक समझ बनती है। उन्होंने कहा कि प्रत्यक्ष दर्शन से भी शिक्षा मिलती है। हमारे गुरुकुल में आचार्यों का जीवन देखकर शिष्य बहुत सी बातों को सीख लेते थे। इसलिए हमारे यहां कहा गया है कि मनसा, वाचा, कर्मणा हमारा व्यवहार एक जैसा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि साहित्य तभी उपयोगी है जब वह पढ़ा जाए और उसमें उल्लेखित जीवन मूल्यों का प्रकटीकरण समाज में दिखाई दे।