डहुआ की महिलाओं ने नहीं कहा रे होलियाँ में उडे रे गुलाल , कहियो रे मंगेतर से..’
बैतूल से रामकिशोर पंवार
बैतूल, रंगो का त्यौहार होली के आते ही इला अरूण का वह गीत सुनाई पडने लगता है कि ‘‘ रे होलियाँ में उडे रे गुलाल
कहियो रे मंगेतर से..’’ लेकिन बैतूल जिले में एक ऐसा गांव भी है जहां की दुल्हन – बहू – बेटी चाह कर भी अपने मंगेतर से यह कह नहीं पाती है कि रे होलियाँ में उडे रे गुलाल ….. उस गांव में और उस गांव की गलियों में यहां तक की उस गांव के किसी आंगन में उस दिन गुलाल नहीं उडता है। 11 वी शताब्दी में धार नगरी से आकर बसे पंवार जाति बाहुल्य डहुआ नामक इस बस्ती में बीते सौ साल से अधिक समय से होली का रंग बदरंग सा दिखाई देता है। बताया जाता है कि लगभग 104 साल पहले ग्राम डहुआ के प्रधान की होली के दिन मौत हो गई थी, तब से लेकर आज तक इस गांव में गुलाल या रंग नहीं उड़ाया जा सका है। गांव के लोग सालो से रंग-गुलाल एक दुसरे को लगाना तो दूर एक दुसरे को होली की शुभकामनाए एवं बधाई तक देने से डरते चले हैं। बसंतोत्सव – रंगोत्सव पर जब पूरा देश रंगों से सराबोर होता है तब एक गांव ऐसा भी है जो कि उस दिन खामोश अपने घरो की चार दिवारी में बैठा रहता है। जिले में यूं तो 558 ग्राम पंचायते और लगभग 13 सौ गांव है। मात्र डहुआ को छोड कर पूरे जिले में होली की मस्ती में सवा महीने तक दिखाई देती है। इस गांव में रंग बेरंग नजर आने के पीछे की कहानी गांव वालो के अनुसार गांव के प्रधान के प्रति अपने सम्मान को प्रदर्शित करती है। आता है। बैतूल छिन्दवाडा रोड पर बसे इस गांव में होली पर मातम पसर जाता है। यहां न तो रंग गुलाल उड़ाता, न ही पकवान बनाए जाते हैं। होली की बधाई तक नहीं दी जाती है। होली पर लगे इस अघोषित प्रतिबंध के दायरे में बच्चे-बूढ़े सभी आते हैं। मध्यप्रदेश – महाराष्ट्र की सीमा से लगा आदिवासी बाहुल्य जिला बैतूल यूं तो पूरी दुनियां में आदिवासी समाज की सवा महीने की होली एवं फाग के लिए जाना जाता है। इस जिले के मूल निवासी एवं रहवासी के बीच आकर बसी पंवार जाति के लोगो की बाहुल्यता वाले गांव को पूर्व विधायक मनीराम बारंगे भाऊ की जन्मभूमि के नाम से भी जाना एवं पहचाना जाता है। गांव का सर्वाधिक लोकप्रिय बारंगे परिवार भी गांव के इस अघोषित होली एवं रंगोत्सव के प्रतिबंध का पालन करता चला आ रहा है। इस गांव में होली पर रंगों को हाथ लगाना भी गुनाह समझा जाता है। होली पर गांव में आम दिनों की तरह चहल- पहल भी नहीं होती है। प्राथमिक साख सहकारी समिति के प्रबंधक रामराव बारंगे बताते है कि गांव में दोपहर में तो गलियों पर सन्नाटा पसर जाता है। होली पर ऐसा मातमी माहौल यहां पिछले कई सालों से नजर आता रहा है। सिर्फ होली ही नहीं होली के बाद पूरे पांच दिन यहां लोग ऐसे ही मातम में डूबे रहते हैं। रंग पंचमी के दिन पूरा गांव होली का आनंद उठाता है यह कुछ वर्षो पूर्व शुरू हुआ रिवाज है। पंवार जाति बाहुल्य इस गांव में आजादी के 75 वर्षो में मात्र एक कार्यकाल को छोड कर देखा जाए तो यहां पर सभी ग्राम सरपंच पंवार जाति से रहे हैं। 2100 की आबादी वाले इस गांव मातम में डूबे रहने के पीछे की कहानी श्री बारंगे के अनुसार उनकेे दादा जी जिनकी उम्र 85 वर्ष थी वे भी सही समय या साल नहीं बता पाए। गांव में रंगो से परहेज के पीछे की त्रासदी गांव में एक दुसरे के प्रति सम्मान का प्रतिक है। आजादी के पहले एवं आजादी के बाद इस गांव की पटेली आदिवासी एवं पंवार समाज के पास रही। लगभग 105 साल पहले गांव में निवास कर रहे कुुंबी समाज के प्रधान नड़भया मगरदे की होली खेलते हुए मौत हो गई थी। उस दिन हर कोई होली की मस्ती मे डूबा हुआ था। परंपरा के अनुसार होली खेलने गांव के बड़े, बुजुर्ग एक कुंए पर इकट्ठा हुए और मस्ती में डूब गए। रंग खेलने के बाद कुएं में कूदकर नहाने का सिलसिला भी चला। प्रधान भी कुएं में कूदे लेकिन, फिर बाहर नहीं निकले। लोगों ने तलाशा तो प्रधान की लाश मिली। उस घटना के बाद आज तक गांव में किसी ने होली नहीं मनाई। पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष अशोक कड़वे के मुताबिक उन्होंने अपनी 67 साल की उम्र में कभी गांव में होली नहीं खेली। बुजुर्ग बताते हैं कि यह सिलसिला 105 साल से भी अधिक सालों से चल रहा है। गांव में 44 साल पहले ब्याह कर आई गीता कड़वे बताती हैं कि उन्होंने गांव में कभी होली मनाते नहीं देखा। चार साल पहले कुछ लोगों ने कोशिश की थी लेकिन उस दिन फिर मगरदे परिवार में गमी हो गई। युवा अंकित बताते हैं कि उन जैसे युवाओं का मन तो होली मनाने को बहुत करता है, लेकिन गांव की परंपरा तोड़ने की जुर्रत कोई नहीं करता। वैसे वे लोग होली के पांचवें दिन पंचमी का त्योहार खूब धूम से मनाते हैं।